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अखाड़े में बुलडोज़र – मुंबई के परिपक्त झुग्गीवासी – प्रियंका बोर्पुजारी

अखाड़े में बुलडोज़र – मुंबई के परिपक्त झुग्गीवासी
– प्रियंका बोर्पुजारी

कुछ साल पहले, कफ परेड के अम्बेडकर नगर में रहने वाले अहमद शेख का टीन से बना घर तोड़ दिया गया, जबकि बाकी पक्के घरों को छुआ तक नहीं गया | अहमद शैख़ ने इशारे को समझा और झट से सीमेंट की छत बना ली और व्यर्थ पड़े टाइल्स से दीवारों को सजा दिया | इस साल 3 मई को शैख़ का घर और अन्य 1500 घरों के साथ धूल में मिला दीया गया | यह लगभग चार दिन के तोड़ू अभियान के अंतर्गत हुआ जिसका उद्देशय था कि मैन्ग्रोव के पेड़ों के क्षेत्र पर से कब्ज़ा हटाना |
संतोष राउत अप्रैल तक टैक्सी चलाता था | उसने बचत करके अपने घर में तीन लाख रूपए लगा करके एक परछती बनवाई ताकि उसके निचले माले पर वह एक किराने की दूकान खोल सकें | 1 मई को उसने पूजा करके दूकान का उद्घाटन किया | अगले ही दिन किराना स्टोर और घर दोनो तोड़ दिए गए | “अब मेरे पास ना काम है, ना घर और ना दुकान | अब एक व्यक्ति आखिर ज़िन्दगी कैसे बिताये?”

अम्बेडकर नगर में अब एक तबाही का मंज़र नज़र आता है | जो पहले एक बस्ती हुआ करती थी अब एक खाली और बदनाम आदर्श सोसाइटी और समुन्दर के पार की ऊँची इमारतों के बीच दबा हुआ वीरान ज़मीन का टुकड़ा है | पानी और मलबे के बीच में मैन्ग्रोव के पेड़ों का क्षेत्र है जिसे बॉम्बे उच्च न्यायालय के 2005 के आर्डर से भारतीय वन कानून, 1927 के तहत संरक्षित वन घोषित कर दिया गया है |

इसी दौरान और पाँच सौ घर मालवणी और चारकोप में तोड़े गए | यह तोड़ू कार्यवाही भी मैन्ग्रोव के पेड़ बचाने के लिए हुई पर वहीँ दूसरी ओर केंद्रीय पर्यावरण विभाग ने मुंबई मेट्रो रेल कारपोरेशन को मेट्रो का फेज-थ्री बनाने के लिए 1000 मैन्ग्रोव के पेड़ काटने की अनुमति दी |

घरों के अधिकारों का संघर्ष, वैध घर दिलाने का प्रयास और कब्ज़े पे रोक-थाम लगाने की कोशिश 1900 से शहर को अलग-अलग दिशाओं में खीच रही है | झोपड़पट्टी में रहने वाले दावा करते है कि उनके घर वर्ष 2000 के पहले से है –ऐसा होने पर उनके घर टूटने से बच जाते हैं – मगर अधिकारी कहते हैं उनका दावा झूठा है | इसका परिणाम: या तो उनकी ज़िन्दगी में लगातार उथलपुथल रहेगी या बुलडोज़र के नीचे कुचल दिए जायेंगे या तो फिर बेदिली से हुए पुनर्वास योजना में फंस जायेंगे नही तो नेता-बिल्डर के गठजोड़ में पिस जायेंगे |

“शहर को कम दाम में काम करने के लिए झुग्गीवासियों की ज़रुरत है, मगर राज्य, बाज़ार और समाज उनके अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं हैं | यह एक असफलता है कि उन्हें इतने अच्छे वेतन नहीं दिए जाते जिससे वह अपने लिए एक अच्छा घर खरीद सकें,” अमिता भिड़े, टाटा सामाजिक विज्ञानं संसथान के सेंटर फॉर अर्बन प्लानिंग, पॉलिसी व गवर्नेंन्स की अध्यक्ष हैं |

लौगों के पहले मैन्ग्रोव

किसी भी ज़मीन के टुकड़े को वन की ज़मीन घोषित तभी किया जा सकता है जब ‘फारेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर’ उस ज़मीन पर बसे लोगों के अधिकारों के सम्बन्ध में समाधान निकाल ले |
छेड़ानगर और चारकोप में मैन्ग्रोव के पेड़ों के क्षेत्र में पड़ने वाली झुग्गियों को ‘फारेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर’ के बिना जाँच पड़ताल किये ‘मैन्ग्रोव सेल’ ने सारे घर तोड़ दिए |

महाराष्ट्र के प्रधान मुख्य वन रक्षक और मैन्ग्रोव सेल के हेड, एन. वासुदेवन, का कहना हैं कि, ‘फारेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर’ राजस्व विभाग से हैं, वन विभाग से नही | फारेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर द्वारा अधिकारों का समाधान करने का काम और अधिसूचित वन ज़मीन से कब्ज़ा हटाने का काम दो अलग-अलग प्रिक्रियें है | हम वन अधिसूचित ज़मीन पर गैरकानूनी कब्ज़ा करने को अधिकार नही कह सकते और हम झोपड़पट्टियों को मैन्ग्रोव की ज़मीनों पर डेरा नही डालने दे सकते |’

महाराष्ट्र राज्य सरकार ने 2014 में घोषित किया था कि 2000 के पहले से बनी हुई झोपड़पट्टीयां नियमित मानी जायेंगी, जिससे उनकी जगह का विकास होगा और उन्हें एस. आर. ऐ. की ओर से मुफ्त में 225 स्क्वेर फीट के अपार्टमेंट दिए जायेंगे | इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए अम्बेडकर नगर के झोपड़पट्टी के निवासी कहते हैं के वह वर्ष 2000 के पहले से वहां रहते है | वर्ष 2013 में अम्बेडकर नगर में भीषण आग लगी थी जिसमे उनके सारे दस्तावेज़ जल गए थे और यही कारण है कि वह वर्ष 2000 के पहले के दस्तावेज़ नहीं दिखा सकते जिस कारण वह न्याय और पुनर्वास से वंचित हो गए है |

एन. वासुदेवन निवासियों के दावे को ख़ारिज करते हुए कहते हैं कि, ‘2005 के सेटेलाईट तस्वीरों के द्वारा चित्र में हरी ज़मीन देख कर मैन्ग्रोव को वन की ज़मीन घोषित किया जाता है | जो भी उन जगहों पर 2005 के पहले से रहना का दावा कर रहें हैं वह साफ़ झूट बोल रहे हैं |”

(दोबारा) घर बनाने की ज़रुरत

बिलाल खान, घर बचाओ घर बनाओ आन्दोलन के एक कार्यकर्ता हैं जो घर के अधिकारों की वकालत करते हैं, उनका कहना है कि ‘कब्जाधारी’ शब्द का इस्तेमाल करना उन लोगों के साथ नाइंसाफी है जो मुंबई में घर खरीदने की क्षमता नहीं रखते | “अगर ‘असंगठित मज़दूर सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 को राज्य के स्तर पर लागू किया जाए, तो लोगों के श्रम को मान्यता प्राप्त होगी और उन्हें आवास, पेंशन, इन्शौरेंस, और अंतिम संस्कार में सहायता के सहित सात योजनाओं का लाभ मिलेगा | प्रचलित सस्ती आवास योजना के तहत आज सस्ते घरों की कीमत 10 लाख रूपए के ऊपर है | एक सफाई कर्मचारी जो मुंबई महानगर पालिका का कर्मचारी नही है वो कैसे इस प्रकार के सस्ते घर खरीद पायेगा ?”

आज़ादी से पहले, मजदूरों को आवास प्रदान करने की ज़रुरत को मान्यता थी | इसीलिए बी.डी.डी. चाल, मोहम्मद अली रोड पर इमामबाड़ा और भय्कल्ला और ताड़देव में बीआयटी चाल बनाये गए; इन चालों के अन्दर टेक्सटाइल मिल मजदूरों को घर प्रदान किये जाते थे |

आजादी के बाद मजदूरों को घर की ज़रुरत को ज़्यादातर नज़रंदाज़ कर दिया गया है | माहडा ने 1970 के दशक में कुछ सस्ते घर ज़रूर बनाये मगर वो मांग की बढ़ती हुई रफ़्तार से बहुत धीरे पड़ गये | तो खाली ज़मीन पर अस्थायी घर बनने लगे जो धीरे धीरे झोपड़पट्टी में तबदील हो गए | बिल्डर खाली ज़मीन पर मजदूरों को दो –तीन साल के लिए अस्थायी घर बनाने की इजाज़त देता और वो भी झोपड़पट्टी में बदल जाते |

वरिष्ठ पत्रकार और ‘रीडिसकवरिंग धारावी: स्टोरीज फ्रॉम एशियाज़ लार्जेस्ट स्लम ‘ की लेखिका, कल्पना शर्मा, कहती हैं कि कुछ झोपड़पत्तियाँ उन्नयन के लिए योग्य थी | “1970 के दशक तक कई झुग्गियां को अवैध और अनियमित समझा जाता था, तो जब भी शहर को जगह की ज़रुरत होती थी झोपड़पट्टियों को उजाड़ दिया जाता था | एक झुग्गीवाले के पास पर्याय घर पाने के लिए कोई अधिकार नही था | एक आगामी झोपड़पट्टी उन्नयन योजना के तहत मान्यता प्राप्त झुग्गीवासियों को मुंबई महानगर पालिका, राज्य सरकार या केंद्रीय सरकार की ज़मीन पर घर बनाने की अनुमति दी गयी और सबको फोटो पास दिए गए |’

यह झोपड़पट्टी उन्नयन योजना 1995 तक चली ; इसके बाद भाजपा-शिव सेना की गठबंधन वाली सरकार ने एस.आर.ए को लाया | दिनेश अफ्ज़ल्पुकर समिति ने सिफारिशों के अनुसार क्षैतिज झोपड़पट्टीयों को खड़े ढांचों में तबदील किया गया जिससे व्यवसायिक निर्माण करने की जगह खुले | यह योजना कागज़ पर तो काफी अच्छा विचार लगा, मगर, श्रीमती शर्मा का कहना है कि असल में योजना कारगर साबित नही हुई क्योंकि बिल्डर्स उसी प्लाट पर पुनर्वास योजना में रूचि दिखाते जिसकी बाज़ार में हाई रियल एस्टेट वैल्यू होती | धारावी पुनर्विकास योजना, जिसको पाँच भागों में बांटा गया था, गलत जनगणना होने से अड़चन में फस गयी |

जोगेशवरी में झुग्गियां 1960 के स्लम एक्ट के पहले से बनी हैं पर जो विकास अराखाड़ा 1964 में जारी हुआ उसमे इन झुग्गियों को दर्शाया ही नही गया | प्रोफेसर भिड़े कहती हैं कि “इन झुग्गियों को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया और जहाँ पर झुग्गियां थी वहाँ पर विकास अराखाड़ा में सड़क दर्शाई गयी | यह विवाद शहर के ढाँचे में तबदील हैं |’

राजनैतिक गठबंधन
ज़मीन और आधारिक संरचना को व्यापारिक वस्तु बनाने की होड़ ने रियल एस्टेट में कीमतें आसमान छूने लगी है , इस प्रिक्रिया ने एक पैटर्न पैदा किया है जिसमे घर गरीब की पहुच से दूर होता चला जा रहा है और बाज़ारी ताकतें शहरी बदलाव के आयाम तय कर रहीं है | यही सारी बाते कई घोटालों का कारण भी बनी, जिसमे नेता-बिल्डर के गहरे गठबंधनों से ज़मीने बेहद सस्ते दामों में लूटी गयी हैं | वसई-विरार ग्रीन बेल्ट को 1990 के दशक में हजारों एकड़ ज़मीन आवास के लिए मुक्त की गयी है |

31 माले की आदर्श हाउसिंग सोसाइटी, जिसके पीछे अम्बेडकर नगर पड़ता है, कारगिल के युद्ध की विधवाओं के लिए बनाई गयी थी | ऊंचे पद के सरकारी अधिकारीयों ने ज़मीन स्वामित्व के नियमों का खुला उलंघन करते हुए अपने नाम पर बाज़ार की कीमतों से कहीं नीचे दामों पर फ्लैट अपने नाम करा लिए | इस घोटाले के कारण तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चौहान को 2010 में इस्तीफा देना पड़ा था |

पश्चिमी तीव्रगामी सड़क से लगे गोलीबार में 125 एकड़ के प्लाट पर शिवालिक वेंचर्स द्वारा चलाई जा रही झोपडपट्टी पुनर्वास योजना में झोपडपट्टी वासियों के संघर्ष की कहानी लम्बी है | गोलीबार के निवासी कृष्णा नायर बताते है कि इस प्लाट पर बने घरों को 2004 में तोडना शुरू किया | कृष्णा का कहना है अब तक तोड़े हुए 7,666 घरों के एवज़ में आजतक केवल 1,932 लोगों को ही नया घर मिला है | घर के बदले घर मिलने वाली इस योजना के लाभकारी लोग सालों से ट्रांजिट कैम्पस में रह रहे है | यह ट्रांजिट कैम्पस गोलीबार के एक हिस्से में बने हुए है जो आज एक खस्ता हालत में है और कभी भी गिर सकते है | दरअसल ट्रांजिट कैम्पस सिमित समय के लिए ही बनाए जाते है क्योंकि लोगों को वहां अस्थायी रूप से बिल्डर के द्वारा निवारा मुहय्या कराया जाता है जबतक उनका स्थायी घर निश्चित की गयी समय सीमा में तैयार नही हो जाता | शिव सेना की कामगार यूनियन से जुड़े कृष्णा का कहना है कि वह पुनर्विकास की योजना के बारे में सुनकर बहुत खुश हुए थे | “बेहतर ज़िन्दगी किसको नही चाहिए होती है? हमे नए फ्लैट और कुछ पैसे देने का वायदा किया गया था | यह घर अगर ऊंची इमारतों में बनाये गए तो शिवालिक वेंचर्स के ¬¬¬पास फिर भी काफी ज़मीन बचेगी जिसको वह व्यावसायिक तौर पर इस्तेमाल कर सकता है क्योंकि यह एक प्राइम प्रॉपर्टी है |

गोलीबार की गणेश कृपा सोसाइटी ने शिवालिक वेंचर्स के खिलाफ दोखेबाज़ी का केस दर्ज करवाया क्योंकि बिल्डर ने झूट-मूठ की सहमती गढ़ के एस.आर.ए. से अनुमति प्राप्त की | कृष्णा एक के बाद एक योजना में हुए फर्जीवाड़े की कहानी सुनाते चले जाते हैं |

आवासीय संपत्ति
एस.आर.ए. के फ्लाटों की री-सेल अधिकारियों के लिए फ़िक्र का कारण बन गया है | बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश पर एस.आर.ए. ने कुछ 90,000 घरों का सर्वेक्षण किया, उनमे से 12,000 गैरकानूनी सौदों में बेच दिए गए थे | नियम इस प्रकार है कि एस.आर.ए. का फ्लैट दस साल तक ना तो बेचा जा सकता और ना ही भाड़े पर दिया जा सकता है | “सर्वेक्षकों ने बस इस बिंदु पर ध्यान दिया कि घरों में रहने वाले वहीं लोग है जिन्हें एस.आर.ए. से घर मिला था या नही | उन्होंने इस बात पर ध्यान नही दिया कि किन परिस्तिथियों में खरीदी बिक्री के सौदे हुए |” यह कहना है एस.आर.ए. के पश्चिमी उपनगर के डिप्टी कलेक्टर, अजिंक्य पड़वल का |
मगर श्रीमती शर्मा कहती हैं कि यह बहुत स्वाभाविक है कि कोई भी व्यक्ति अप्ताकालीन स्तिथि में, जैसे कि बिमारी का खर्चा सहने के लिए अपनी सम्पति का इस्तेमाल करे | “अगर एस.आर.ए. फ्लैट किसी महंगे क्षेत्र में है तो यह ज़ाहिर है की लोग फ्लैट को भाड़े पर दे कर उत्तर की ओर जायेंगे |’

एस.आर.ए. का अस्तित्व इस बात पर प्रकाश डालता है कि झुग्गीवासी एक खाली बंजर ज़मीन पर रहकर उसका मूल्य बढ़ाते हैं, जैसे धारावी में दिखता है जो पहले एक दलदल ज़मीन थी | मगर एस.आर.ए. के द्वारा पुनर्निवास के प्रयासों में झुग्गीवासियों का रोज़गार और सामाजिक संबंध ही ज्यादा भंग हुए हैं |

मुंबई महानगर पालिका के आतिक्रमण निष्कासन सेल के सहाय्यक आयुक्त, विश्वास शंकरवर कहते हैं कि लोग मानखुर्द जैसी जगहों पर एस.आर.ए. का फ्लैट लेने में हिचकिचाते हैं | “जब लोग दादर जैसी अछी जगहों पर रह रहे होते हैं तो ज़मीन की ऊँची कीमत के कारण उसे छोड़ना नहीं चाहते|”

कानून से समाधान ?
घर बचाओ घर बनाओ आन्दोलन के श्री. खान कहते हैं कि बुलडोज़र के सामने खड़ा होना और कोर्ट कचहेरी के चक्कर काटना तो बस आग को कुछ देर के लिए बुझाने जैसा है, इससे कोई हल नही निकलने वाला |

पर्याप्त आवास के अधिकार पर संयुक राष्ट्र की विशेष रिपोर्टर, सुश्री लेलानी फराह ने वर्ष 2016 में मानव अधिकारों पर आधारित भारत में घर के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए एक राष्ट्रीय कानून की मांग करी | सुश्री फराह द्वारा पेश की गयी रिपोर्ट की मुख्य सिफारिश यह थी कि आवासीय अधिकारों के सवालों को सुलझाने के लिए एक राष्ट्रीय कानून बने |

2002 में घर बचाओ घर बनाओ आन्दोलन ने एक के बाद एक तोड़ू कार्यवाही को देखकर एक केस फाइल किया जिसके जवाब में सरकार ने एक टास्क फाॅर्स का गठन किया जिसका कार्य था कि वह 1995 के बाद आयीं झुग्गी-झोपड़ियों के बारे में जाने | प्रोफेसर भिड़े उस टास्क फ़ोर्स में शामिल थी और उनकी अनेक सिफरिशों में से एक सिफारिश यह थी कि कट-ऑफ-डेट की धारणा को ख़ारिज कर देना चाहिए |

टास्क फ़ोर्स की अंतिम रिपोर्ट को सरकारी मंज़ूरी मिलने से पहले ही 2006 में एक नयी आवासीय नीति की स्थापना कर दी गयी | अभी चलन में जो तरीका है जिसमे मुफ्त आवास दिए जा रहे हैं, उससे एक उपरी सीमा बन जाती है जिससे तय होता है कि कितने घर कितने और कैसे लोगों को मिलेंगे | प्रोफेसर भिड़े कहती हैं कि ऐसी नीति अपवर्जनात्मक है, जिससे सिर्फ निवेशकों को फायदा होता है और फलस्वरूप दूर दराज़ की जगहों पर नई बस्तियां वजूद में आती है | ऐसी कई बस्तिया ऐरोली, भयंदर और नाल्लासोपारा में बन रही है | “ऐसा लगता है जैसे शहर अपने दरवाज़े बंद कर रहा है जो एक विडंबना है क्योंकि हम प्रवासियों को तो आकर्षित करना चाहते है पर गरीबों को नहीं |”

क्या मुंबई ने अब आवासीय अधिकार देने का मौका छोड़ दिया है ? क्या गरीबों के घरों का टूटना जारी रहेगा ?

प्रोफेसर भिड़े कानूनी और गैरकानूनी की धारणाओं से आगे बढ़ने को सुझाती हैं | “सस्ते आवास प्राप्त करने का दायरा बढ़ाना चाहिए | गरीब पैसा देने के लिए तैयार हैं पर वो कानूनी रास्ते ही कहाँ हैं जिससे गरीब आपनी मामूली सी आमदनी से घर खरीद सके ?”

मुंबई के एम-ईस्ट वार्ड में बन रहीं नई झोपड़ियों को देखकर ऐसा व्यतीत होता है कि गरीब जनता दो-तीन पुश्तों तक झुग्गी की दुनिया से बहार ही नही निकल पायेगी |

इस दौरान अम्बेडकर नगर में तिरपाल से बने अस्थाई टेंट बन गए हैं; कुछ पुराने रहिवाशी कहीं और कमरा भाड़े पर ले कर रह रहे हैं | श्री खान ने पूछते है कि वहाँ पर “एक औरत की महीने की आमदनी सिर्फ 2000 रूपए है,उसके लिए सस्ता घर कहाँ मिलेगा ?”

प्रोफेसर भिड़े कहती हैं कि और गहरे अनुबंध की ज़रुरत है | ‘हम कानून के आधार पर बात कर सकते हैं मगर उससे सव कुछ न्यायसंगत नहीं हो जाता | न्याय के और भी तरीके होना चाहिए |”

यह आर्टिकल अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद हुआ है | असली आर्टिकल के लिए इस लिंक पर जाये: http://www.thehindu.com/news/cities/mumbai/bulldozer-in-the-ring/article19099978.ece

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